गुरुवार, 5 जून 2008

मुक्तक / कुमार विश्वास


1.

बहुत टूटा बहुत बिखरा थपेडे सह नही पाया

हवाऒं के इशारों पर मगर मै बह नही पाया

रहा है अनसुना और अनकहा ही प्यार का किस्सा

कभी तुम सुन नही पायी कभी मै कह नही पाया


2.

बस्ती बस्ती घोर उदासी पर्वत पर्वत खालीपन

मन हीरा बेमोल बिक गया घिस घिस रीता तन चंदन

इस धरती से उस अम्बर तक दो ही चीज़ गज़ब की है

एक तो तेरा भोलापन है एक मेरा दीवानापन


3.

तुम्हारे पास हूँ लेकिन जो दूरी है समझता हूँ

तुम्हारे बिन मेरी हस्ती अधूरी है समझता हूँ

तुम्हे मै भूल जाऊँगा ये मुमकिन है नही लेकिन

तुम्ही को भूलना सबसे ज़रूरी है समझता हूँ


4.

पनाहों में जो आया हो तो उस पर वार करना क्या

जो दिल हारा हुआ हो उस पर फिर अधिकार करना क्या

मुहब्बत का मज़ा तो डूबने की कश्मकश मे है

हो गर मालूम गहराई तो दरिया पार करना क्या


5.

समन्दर पीर का अन्दर है लेकिन रो नही सकता

ये आँसू प्यार का मोती है इसको खो नही सकता

मेरी चाहत को दुल्हन तू बना लेना मगर सुन ले

जो मेरा हो नही पाया वो तेरा हो नही सकता

तुम्हे मैं प्यार नहीं दे पाऊँगा / कुमार विश्वास

ओ कल्पव्रक्ष की सोनजुही!
ओ अमलताश की अमलकली!
धरती के आतप से जलते..
मन पर छाई निर्मल बदली..
मैं तुमको मधुसदगन्ध युक्त संसार नहीं दे पाऊँगा|
तुम मुझको करना माफ तुम्हे मैं प्यार नहीं दे पाऊँगा||

तुम कल्पव्रक्ष का फूल और
मैं धरती का अदना गायक
तुम जीवन के उपभोग योग्य
मैं नहीं स्वयं अपने लायक
तुम नहीं अधूरी गजल शुभे
तुम शाम गान सी पावन हो
हिम शिखरों पर सहसा कौंधी
बिजुरी सी तुम मनभावन हो.
इसलिये व्यर्थ शब्दों वाला व्यापार नहीं दे पाऊँगा|
तुम मुझको करना माफ तुम्हे मैं प्यार नहीं दे पाऊँगा||

तुम जिस शय्या पर शयन करो
वह क्षीर सिन्धु सी पावन हो
जिस आँगन की हो मौलश्री
वह आँगन क्या व्रन्दावन हो
जिन अधरों का चुम्बन पाओ
वे अधर नहीं गंगातट हों
जिसकी छाया बन साथ रहो
वह व्यक्ति नहीं वंशीवट हो
पर मैं वट जैसा सघन छाँह विस्तार नहीं दे पाऊँगा|
तुम मुझको करना माफ तुम्हे मैं प्यार नहीं दे पाऊँगा||

मै तुमको चाँद सितारों का
सौंपू उपहार भला कैसे
मैं यायावर बंजारा साँधू
सुर श्रंगार भला कैसे
मैन जीवन के प्रश्नों से नाता तोड तुम्हारे साथ शुभे
बारूद बिछी धरती पर कर लूँ
दो पल प्यार भला कैसे
इसलिये विवष हर आँसू को सत्कार नहीं दे पाऊँगा|
तुम मुझको करना माफ तुम्हे मैं प्यार नहीं दे पाऊँगा||

अमावस की काली रातों में / कुमार विश्वास





अमावस की काली रातों में दिल का दरवाजा खुलता है,
जब दर्द की प्याली रातों में गम आंसू के संग होते हैं,
जब पिछवाड़े के कमरे में हम निपट अकेले होते हैं,
जब घड़ियाँ टिक-टिक चलती हैं,सब सोते हैं, हम रोते हैं,
जब बार-बार दोहराने से सारी यादें चुक जाती हैं,
जब ऊँच-नीच समझाने में माथे की नस दुःख जाती है,
तब एक पगली लड़की के बिन जीना गद्दारी लगता है,
और उस पगली लड़की के बिन मरना भी भारी लगता है।


जब पोथे खाली होते है, जब हर सवाली होते हैं,
जब गज़लें रास नही आती, अफ़साने गाली होते हैं,
जब बासी फीकी धूप समेटे दिन जल्दी ढल जता है,
जब सूरज का लश्कर चाहत से गलियों में देर से जाता है,
जब जल्दी घर जाने की इच्छा मन ही मन घुट जाती है,
जब कालेज से घर लाने वाली पहली बस छुट जाती है,
जब बेमन से खाना खाने पर माँ गुस्सा हो जाती है,
जब लाख मन करने पर भी पारो पढ़ने आ जाती है,
जब अपना हर मनचाहा काम कोई लाचारी लगता है,
तब एक पगली लड़की के बिन जीना गद्दारी लगता है,
और उस पगली लड़की के बिन मरना भी भारी लगता है।


जब कमरे में सन्नाटे की आवाज़ सुनाई देती है,
जब दर्पण में आंखों के नीचे झाई दिखाई देती है,
जब बड़की भाभी कहती हैं, कुछ सेहत का भी ध्यान करो,
क्या लिखते हो दिन भर, कुछ सपनों का भी सम्मान करो,
जब बाबा वाली बैठक में कुछ रिश्ते वाले आते हैं,
जब बाबा हमें बुलाते है,हम जाते हैं,घबराते हैं,
जब साड़ी पहने एक लड़की का फोटो लाया जाता है,
जब भाभी हमें मनाती हैं, फोटो दिखलाया जाता है,
जब सारे घर का समझाना हमको फनकारी लगता है,
तब एक पगली लड़की के बिन जीना गद्दारी लगता है,
और उस पगली लड़की के बिन मरना भी भारी लगता है।


दीदी कहती हैं उस पगली लडकी की कुछ औकात नहीं,
उसके दिल में भैया तेरे जैसे प्यारे जज़्बात नहीं,
वो पगली लड़की एक दिन मेरे लिए भूखी रहती है,
चुप चुप सारे व्रत करती है, मगर मुझसे कुछ ना कहती है,
जो पगली लडकी कहती है, हाँ प्यार तुझी से करती हूँ,
लेकिन मैं हूँ मजबूर बहुत, अम्मा-बाबा से डरती हूँ,
उस पगली लड़की पर अपना कुछ अधिकार नहीं बाबा,
ये कथा-कहानी-किस्से हैं, कुछ भी सार नहीं बाबा,
बस उस पगली लडकी के संग जीना फुलवारी लगता है,
और उस पगली लड़की के बिन मरना भी भारी लगता है

मै कवि हूँ / कुमार विश्वास



सम्बन्धों को अनुबन्धों को परिभाषाएँ देनी होंगी

होठों के संग नयनों को कुछ भाषाएँ देनी होंगी

हर विवश आँख के आँसू को

यूँ ही हँस हँस पीना होगा

मै कवि हूँ जब तक पीडा है

तब तक मुझको जीना होगा


मनमोहन के आकर्षण मे भूली भटकी राधाऒं की

हर अभिशापित वैदेही को पथ मे मिलती बाधाऒं की

दे प्राण देह का मोह छुडाने वाली हाडा रानी की

मीराऒं की आँखों से झरते गंगाजल से पानी की

मुझको ही कथा सँजोनी है,

मुझको ही व्यथा पिरोनी है

स्मृतियाँ घाव भले ही दें

मुझको उनको सीना होगा

मै कवि हूँ जब तक पीडा है

तब तक मुझको जीना होगा


जो सूरज को पिघलाती है व्याकुल उन साँसों को देखूँ

या सतरंगी परिधानों पर मिटती इन प्यासों को देखूँ

देखूँ आँसू की कीमत पर मुस्कानों के सौदे होते

या फूलों के हित औरों के पथ मे देखूँ काँटे बोते

इन द्रौपदियों के चीरों से

हर क्रौंच-वधिक के तीरों से

सारा जग बच जाएगा पर

छलनी मेरा सीना होगा

मै कवि हूँ जब तक पीडा है

तब तक मुझको जीना होगा


कलरव ने सूनापन सौंपा मुझको अभाव से भाव मिले

पीडाऒं से मुस्कान मिली हँसते फूलों से घाव मिले

सरिताऒं की मन्थर गति मे मैने आशा का गीत सुना

शैलों पर झरते मेघों में मैने जीवन-संगीत सुना

पीडा की इस मधुशाला में

आँसू की खारी हाला में

तन-मन जो आज डुबो देगा

वह ही युग का मीना होगा

मै कवि हूँ जब तक पीडा है

तब तक मुझको जीना होगा